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भारतीय गिद्ध विलुप्त क्यों हो रहे हैं
Vulture Facts in Hindi | गिद्ध से जुड़े रोचक तथ्य
गिद्ध से जुड़े रोचक तथ्य | Vulture Facts in Hindi |
1980 के दशक में भारत में सफेद पूंछ वाले गिद्धों की
संख्या करीब 80 मिलियन (800 लाख) थी। आज (2016) इनकी संख्या 40 हजार से भी कम हो
चुकी है। डोडो समेत यह दुनिया में किसी भी पक्षी प्रजाति की सबसे तेजी से हुई कमी
है। जैसा कि हम जानते हैं कि गिद्ध स्वच्छता के काम में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
गिद्धों के विलुप्त होने से नतीजा यह हुआ कि चूहों की संख्या में अचानक बहुत
बढ़ोतरी हो गई है। ऐसे ही कई और परिणाम देखे गए हैं। गिद्धों की संख्या में हुई
कमी की वजह से वर्ष 2015 तक पर्यावरण स्वच्छता के लिए करीब 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च हुआ है।
गिद्धों से लाभः
1. गिद्ध पर्यावरण के प्राकृतिक सफाईकर्मी होते हैं।
ये मृत और सड़ रहे पशुओं के शवों को भोजन के तौर पर खाते हैं और इस प्रकार मिट्टी
में खनिजों की वापसी की प्रक्रिया को बढ़ाते बैं। इसके अलावा, मृत शवों को समाप्त कर वे संक्रामक बीमारियों को
फैलने से भी रोकते हैं। गिद्धों की अनुपस्थिति में मूषक और आवारा कुत्तों जैसे
पशुओं द्वारा रेबीज जैसी बीमारी के प्रसार को बढ़ाने की संभावना बढ़ जाएगी।
2. भारत में पारसी धर्म (पारसी समुदाय) के अनुयायी
अपने मृत शवों के निराकरण के लिए परंपरागत रूप से गिद्धों पर निर्भर करते हैं। इसलिए, कई सदियों से भारत
के गिद्ध पारसी धर्म के लोगों के लिए महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र सेवा प्रदान
कर रहे हैं।
गिद्ध मुर्दाखोर पक्षी होते हैं जो बड़े पशुओं के शवों को खाते हैं और इसलिए
पर्यावरण को साफ करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
बहुत ही प्राचीन
पक्षी गिद्ध (Vulture) का रंग गहरा भूरा होता है | कभी कभी छोटे और सफेद रंग के गिद्ध भी दिखाई दे
जाते है जो संख्या में बहुत कम है | स्वच्छ
पर्यावरण के लिए गिद्ध (Vulture) बहुत ही उपयोगी पक्षी है | यह हमारे आसपास की गन्दगी , मरे हुए जानवर का माँस आदि खा जाता है
1. गिद्ध (Vulture )का शरीर 90 सेमी तक लम्बा होता है | इसके पंखो का आकार मटमैला होता है | इसकी पीठ पर सफ़ेद रंग का धब्बा होता है | सिर पर मुर्गे की भांति छोटी सी कलंगी होती है |
2. गिद्ध (Vulture) का वजन 8-10 किलोग्राम तक होता है | विश्व में इसकी 21 प्रजातियाँ पायी
जाती है |
3. बड़ा, काला , टर्की जैसा राज गिद्ध (King Vulture) होता है | बिना पर वाला सिर ,गर्दन तथा टाँगे गहरी सिंदूरी होती है | उपर उड़ते हुए पक्षी को नीचे से देखने पर पंखो के निचले भाग में एक
सफेद पट्टी दिखाई देती है | नर-मादा एक जैसे होते है | हवा में तैरते समय पंख शरीर के तल के उपर V का आकार बनाते है | शवो के पास गिद्धों के झुण्ड में एक, दो या तीन राजगिद्ध भी होते है | यह छीना-झपटी से दूर ही रहता है | गाँव के पास किसी ऊँचे पेड़ पर 30-40 फ़ीट की ऊँचाई पर टहनियों से चबूतरे जैसा घोंसला बनाते है | मादा एक सफेद महीन बनावट वाला गोल अंडा देती है | भारत में सब जगह, पाकिस्तान, बांग्लादेश , बर्मा में पाया
जाता है |
4. भारत में ही पाया जाने वाला श्वेत पृष्ट गिद्ध (White
Backed Vulture) सामान्य गिद्ध है | यह भारी गंदा काला , भूरा होता है | पतला नंगा सिर और
पतली ग्रीबा होती है | अक्टूबर से मार्च प्रजनन का समय
होता है | गाँव के आसपास बरगद , इमली जैसे पेड़ पर एक बड़ा सा चबूतरा सा घोंसला बनाता है |
5. गिद्ध दो तरह के होते है जो एक दुसरे से ज्यादा संबधित नही होते है
| New World Vulture सिर्फ अमेरिका
में मिलते है | Old World Vulture यूरोप ,एशिया और अफ्रीका के गर्म भागो में मिलते है |
भारतीय गिद्धों की मौत के कारण :
1. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) के
विश्लेषण के अनुसार डिक्लोफेनाक (Diclofenac) का
पशु-चिकित्सा में उपयोग भारत में गिद्धों के लिए मुख्य खतरा है। डिक्लोफेनाक एक
गैर–स्टेरॉयडल सूजन–रोधी
दवा (NSAID) है जो मांसपेशियों की दर्द के समय लगाए जाने वाले
लगभग सभी प्रकार के जेलों,
क्रीमों और स्प्रे का एक घटक है।
2. यह दवा पशुओं पर भी समान रूप से प्रभावी होती है
और जब कामकाजी पशुओं को इसे दिया जाता है तो उनके जोड़ों का दर्द कम हो जाता है और
उन्हें अधिक समय तक कामकाजी बनाए रखता है। इसलिए पशुओं
में दर्द निवारक के तौर पर डिक्लोफेनाक का बड़े पैमाने पर प्रयोग भारत में गिद्धों
की मौत की वजह है।चूंकि गुर्दों को इस
दवा को शरीर से बाहर करने में काफी समय लग जाता है इसलिए मृत्यु के बाद भी यह पशु
के शरीर में मौजूद रहता है। चूंकि गिद्ध मुर्दाखोर
होते हैं और इसलिए वे मृत पशुओं के शवों को भोजन के तौर पर ग्रहण करने लगते हैं।
एक बार जब वे डिक्लोफेनाक संदूषित मांस का सेवन कर लेते हैं तो उनके गुर्दे काम
करना बंद कर देते हैं और उनकी मौत हो जाती है।
3. भारत में गिद्धों के लिए कीटनाशक प्रदूषण भी एक
खतरा है। क्लोरीनयुक्त हाइड्रोकार्बन डी.डी.टी (डाइक्लोरो डाइफिनाइल
ट्राईक्लोरोइथेन) का प्रयोग कीटनाशक के तौर पर किया जाता है। यह गिद्धों के शरीर
में खाद्य श्रृंखला के माध्यम से प्रवेश करता है जहां यह एस्ट्रोजन हार्मोन की
गतिविधि को प्रभावित करता है, परिणामस्वरूप अंड
कोश कमजोर हो जाता है। इससे अंडों की असामयिक सोने की प्रक्रिया होती है जिससे
भ्रूण की मौत हो जाती है।
4. शिकारी हाथी, बाघ, गैंडा, हिरण और भालू जैसे
जंगली पशुओं के चमड़े, दांत, कस्तूरी, सींग, शाखायुक्त सींग और
बाइल को निकालने के लिए जहरीले भोजन का सहारा लेते हैं। जब जहरीला भोजन खा कर मरने वाले पशुओं के शवों को
गिद्ध खाते हैं तो वे भी मर जाते हैं।
केवल तीन दशकों
में गिद्धों की 99.95 फीसदी आबादी साफ हो गई। अस्सी के दशक में भारत
में इनकी संख्या चार करोड़ से ज्यादा थी। लेकिन, अब सिर्फ 19
हजार गिद्ध ही बचे हैं। बीते शुक्रवार को वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर
ने संसद में इसकी जानकारी दी।
साहित्य और
मुहावरों में भले ही गिद्धों को विलेन की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा हो लेकिन
सच्चाई यह है कि गिद्ध प्रकृति के मित्र हैं। वे मरे हुए जीवों को खाकर साफ कर
देते हैं। शवों की साफ-सफाई का काम उनसे बेहतर कोई नहीं करता। बड़े अफसोस की बात
है कि वे बड़ी तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं।
सबसे पहले नब्बे
के दशक के अंतिम दौर में यह गौर किया गया कि गिद्धों की संख्या कम होती जा रही है।
लेकिन, जब तक उनके कारणों का पता लगता और बचाव के उपाय
किए जाते, उनकी लगभग आबादी साफ हो गई।
जानवरों को दी
जाने वाली डाइक्लोफेनॉक दवा के चलते गिद्धों के गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं।
दरअसल, यह दवा पशुओं को दी जाती थी। यह दवा लेने वाले
पशु की मौत हो जाए और उस पशु का शव गिद्ध खाए,
तो उसकी जान पर भी संकट आ जाता था।
बाद में
डाइक्लोफेनॉक दवा का पशुओं में इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया गया।
इसकी बजाय अब
मेलाक्सीकम दवा का इस्तेमाल किया जाता है। यह दवा गिद्धों के लिए हानिकारक नहीं
हैं। लेकिन, जब तक इन उपायों पर काम किया जाता गिद्ध समाप्त
होने की कगार पर पहुंच चुके थे।
प्रकाश जावड़ेकर
द्वारा संसद में दी गई सूचना के मुताबिक वर्ष 2015 में किए गए सर्वे के मुताबिक भारत में फिलहाल
सफेद पूंछ वाले छह हजार गिद्ध, लंबी गर्दन वाले 12
हजार गिद्ध और बेलनाकार गर्दन वाले एक हजार गिद्ध बचे हुए हैं।
ईकोसिस्टम से
गिद्धों के गायब होने के तमाम असर आसानी से देखे जा सकते हैं। जगह-जगह पर पशुओं के
शव सड़ते रहते हैं। इससे हानिकारक तत्व आसपास की प्रकृति और पर्यावरण को दूषित
करते है
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